शक तो है ही: क्या मंझौल अनुमंडलीय अस्पताल का अहिल्या उद्धार कर पाएंगे सीएम नीतीश कुमार

मंझौल
➡️पिछले सत्रह वर्षों में बढ़ती रही निर्माण राशि लेकिन अब तक शून्य है फलाफल
➡️अभी भी मंझौल अस्पताल के हनाहन संचालन से सशंकित हैं क्षेत्रवासी
मंझौल
समाचार विचार/बेगूसराय: कहा जाता है कि 14 बरसों में भगवान राम का भी वनवास खत्म हो गया था। लेकिन, बेगूसराय जिले के मंझौल अनुमंडल मुख्यालय में बनने वाले अनुमंडलीय अस्पताल का निर्माण बिहार की सरकार और स्वास्थ्य विभाग 16 बरसों में संपूर्ण रूप से पूरा नहीं करवा सकी है। संबंधित अधिकारियों, स्थानीय विधायक और जनप्रतिनिधियों की उदासीनता का तो कोई कहना ही नहीं। अब बनने के बाद 18 जनवरी को बिहार के मुख्यमंत्री इसका उदघाटन करनेवाले हैं। इसी को लेकर जिले के वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार महेश भारती ने अपनी लेखनी से जो चिंता जाहिर की है, प्रस्तुत है उनके संपादित अंश।
वर्ष 2007 में हुई थी 4 करोड़ 91 लाख की राशि स्वीकृत
महेश भारती लिखते हैं कि वर्ष 2008-9 में शुरू हुआ मंझौल का अनुमंडलीय अस्पताल जन्म लेने के साथ ही कोमा में चला गया। क्या 16 साल कम होता है एक निर्माण के लिए। 12 साल में तो अपने यहां युग बदल जाता है।  इन 16 बरसों में न तो बेगूसराय के किसी राजनीतिक दल ने इसे एजेंडे में शामिल कर इसके लिए आंदोलन चलाया और न ही स्थानीय विधायक या मंत्री भी सार्थक पहल कर सके। यह अस्पताल जन्म लेने के पहले सौरी घर में ही क्यों मर गया? कौन दोषी है? सरकार के अस्पताल का यही हश्र होता है क्या? यह विचारणीय बिन्दु है। मंझौल के अनुमंडलीय अस्पताल के लिए वर्ष 2007 में ही 4 करोड़ 91 लाख हजार की राशि स्वीकृत हुई थी। राज्य के तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री चंद्रमोहन राय और स्थानीय विधायक अनिल चौधरी ने आकर अस्पताल की नींव भी डाल दी। अस्पताल का काम शुरू भी हो गया। भवन बनने लगे। लोगों का विश्वास जगा कि जल्द ही अस्पताल भवन बनकर तैयार हो जाएगा। डाक्टर आ जाएंगे। उपस्कर आ जाएंगे। अस्पताल हनाहन चलने लगेगा। लोगों को स्वास्थ्य लाभ मिलेगा। बीमारों का इलाज होगा। लेकिन, बिहार के सुशासन और कार्य की कच्छप गति का हाल है कि अस्पताल भवन का काम 14 बरस बाद भी संपूर्ण रूप से पूरा नहीं हो सका है। इसी बीच कार्य करने वाली एजेंसी ने विभागीय अधिकारियों की मदद से राशि भी बढवा ली। राशि रिविजन के खेल में अस्पताल का निर्माण अधर में लटकता गया।

पिछले सत्रह वर्षों में बढ़ती रही निर्माण राशि लेकिन अब तक शून्य है फलाफल
प्रथम रिविजन में निर्माण की राशि भी बढ़ाकर 5 करोड़ 91 लाख कर दी गई। सरकारें आतीं गयीं, चली गयी। क्षेत्रीय एमएलए बदल गए और सत्ताधारी पार्टी की कुमारी मंजू वर्मा एमएलए चुनी गयीं। एमएलए एक टर्म क्या, दूसरे टर्म भी दुबारा जीत गईं। राज्य के कैबिनेट में मंत्री भी बन गईं। लेकिन, मंझौल का यह  अस्पताल भवन अधूरा ही पड़ा रहा। एक बार फिर रिविज़न की निर्माण राशि बढ़ाकर सात करोड़ से अधिक कर दी गयी। अस्पताल भवन वैसे ही पड़ा रहा। विडम्बना है कि सात आठ बरसों से तो कोई काम नहीं हुआ। बना भवन भी टूटता रहा। वहां लगाई गई किवाड़ खिड़कियां लोग उठा ले गए। अधूरा अस्पताल भवन शराब व्यवसाय का अड्डा बन गया। यह  व्यभिचार का अड्डा बना रहा। शौचालय का साइट बना रहा। स्थानीय और अगल-बगल के लोगों के लिए इसके कमरे और बरामदे तथा परिसर सुरक्षित शौचालय बने हैं। उनके लिए  अवैध काम और कब्जे का अड्डा बना रहा। बिना पाखाना पर पैर दिए इस कैंपस में आप टहल नहीं सकते थे। नवनिर्मित भवन भुतहा अडडा बना रहा। झड़ते प्लास्टर, टूटती दीवारें घटिया निर्माण और राशि लूट तथा राशि बंदरबाट की कहानी चीख-चीख कहती रही। इस क्षेत्र के विधायक जी मंत्री जी बनते गए। दावों की सुशासनी सरकार थी, है भी। अस्पताल क्षेत्रीय लोगों को मुंह चिढ़ाता रहा। वर्ष 2020 के विधानसभा चुनाव में यह मुद्दा जोर-शोर से उठा, लेकिन, परिणाम ढाक के तीन पात ही रहा। वर्ष 2020 के चुनाव में सत्तारूढ़ पार्टी के विधायक की हार हो गई और राजद के राजवंशी महतो यहां से एमएलए चुन लिए गए। उनका कार्यकाल भी पांच वर्ष पूरा होने पर है।
क्या मंझौल अनुमंडलीय अस्पताल का अहिल्या उद्धार कर पाएंगे सीएम नीतीश कुमार
मंझौल का यह अस्पताल बेगूसराय रोसड़ा रोड पर बेशकीमती जमीन पर है। करोड़ों की जमीन और करोड़ों की सरकारी लागत। परिणाम, लाभ शून्य। यह सुशासन की सरकारी व्यवस्था है। न तो कोई अधिकारी, न तो कोई नेता इसपर बोलना मुनासिब समझे, ग्रामीणों की आवाज भी नक्कारखाने में तूती की आवाज साबित होती रही। अब 17 बरसों में इसका अहिल्या उद्धार करने सूबे के सीएम 18 जनवरी को मंझौल आ रहे हैं। यह देखना दिलचस्प होगा कि यह अस्पताल स्वास्थ्य सुविधाओं है लैस होता है या फिर वही इतिहास दोहराता है।

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